Tuesday, September 25, 2018

मिठास का रोग, रोग से मिठास

लंदन के प्रतिष्ठित लांसेट ग्लोबल हेल्थ जर्नल में छपे एक अध्ययन के मुताबिक 1990 में भारत में डाइबिटीज के मरीजों की तादाद दो करोड़ साठ लाख के आसपास थी। 2016 में यह तादाद बढ़कर करीब छह करोड़ पचास लाख हो गयी। यानी 1990 से 2016 के बीच करीब 150 प्रतिशत की बढ़ोतरी हो गयी। डाइबिटीज से बहुतों को बहुत उम्मीदें हैं। तमाम तरह के मेडिकल टेस्ट करने वाली एक लेबोरेटरी के शेयर के भाव एक साल में करीब पच्चीस फीसदी बढ़ गये।
इस लेबोरेटरी का सेल्समैन और शेयरधारक हर बंदे में डाइबिटीज की सु-संभावनाएं देख लेते हैं। डाइबिटीज सबके लिए नुकसानदेह नहीं होती। बहुतों को बहुत फायदा कराकर जाती है। इस देश से सबको अपने-अपने हिसाब से उम्मीदें हैं। एक और बाबाजी हैं जो डाइबिटीज न हो, इसके लिए दवाएं बेचते हैं। उन्हें भी बहुत उम्मीदें हैं डाइबिटीज से। एक जिम ने ऐसा पैकेज निकाला है जो डाइबिटीज के मरीजों के लिए खास एक्सरसाइज करवाता है। मैं डरता हूं कि यह एक के साथ एक फ्री का आफर न निकाल दे। आपके घर में किसी और को डाइबिटीज हो जाये तो हम उन्हें भी सस्ता जिम पैकेज दे देंगे।
आखिर में सब धंधा ही है।
हालांकि पहले भी सब धंधा ही है। एक अस्पताल वाले बता रहे थे कि डेंगू से ज्यादा कमाई न हो पाती है। बंदा दो-चार दिन में घर वापस हो लेता है। बीमारी हो तो डायबिटीज जैसी, एक बार आये तो पूरी जिंदगी रहे। कुछ नयी टेस्टिंग लेबोरेटरी भी स्थापित हो रही हैं मेरे घर के पास। इनके बंदे उन लोगों को बहुत चिंता की निगाह से देखते हैं, जो सुबह उठकर योग करने जाते हैं। योग ठीक ठाक करते रहे तो टेस्ट कराने कौन आयेगा। योग से कुछ लोगों को उम्मीदें हैं, कुछ लोगों को डाइबिटीज से उम्मीदें हैं। -मेरा प्यार डाइबिटीज जैसा, कभी खत्म ही न हो-टाइप कुछ सीरियल एकता कपूरजी बनायें, जो पचास-साठ साल तक चले। डाइबिटीज से सिर्फ लेबोरेटरी वाले और अस्पताल वाले ही क्यों कमायें। फिल्म-सीरियल वाले भी कुछ अपना भला कर लें।
एक आम आदमी कह रहा है-मुझे तो डाइबिटीज का नाम सुनकर ही डर लगता है। मैंने उसे सलाह दी है कि भाई तू किसी टेस्टिंग लेब में नौकरी कर ले, फिर डाइबिटीज की खबरें तुझे हर्षित करेंगी। या तू बाबा सुपर मूसा बंगाली टाइप हो जा, जो डाइबिटीज को जिन्नात के जरिये खत्म करवाने का वादा करते हैं। बाबा सुपर मूसा बंगाली के ज्यादातर कस्टमर मरते देखे हैं। बाबा आफ दि रिकार्ड बताते हैं कि मरना तो इसे था ही, सस्ते में मर गया। किसी लेबोरेटरी, डाक्टर, अस्पताल के चक्कर में पड़ा होता तो सब कुछ लुटा कर मरता। मैंने कहा-आप अपने इश्तिहार में यही लिखवा दो-सस्ते में मरें, बाबा सुपर मूसा बंगाली का पैकेज। बाबा नाराज हो गया, बोला-इतनी ऊलजलूल बात करता है, तू चाहे तो बाबा भी बन सकता है। पर बनना मत, मेरा धंधा खराब होगा।दहेज की खातिर बहुओं की उत्पीड़न से रक्षा के लिये 35 साल पहले भारतीय दंड संहिता में शामिल धारा 498-ए के दुरुपयोग और पति सहित ससुराल के सदस्यों की गिरफ्तारी से उत्पन्न समस्याओं से चिन्तित देश की शीर्ष अदालत इस धारा पर नये सिरे से विचार करने और ससुराल वालों को अनावश्यक परेशानियों से बचाने के लिये उचित उपाय करने का सुझाव दे रही है। इस दिशा में सरकार की ओर से अभी तक ठोस कदम नहीं उठाये गये हैं।
स्थिति यह हो गयी है कि इस धारा के दुरुपयोग को लेकर अब केन्द्र में सत्तारूढ़ राजग के प्रमुख घटक भारतीय जनता पार्टी के ही सांसदों ने पतियों के हितों की रक्षा के लिये पुरुष आयोग गठित करने की मांग की है। धारा 498-ए के बढ़ते दुरुपयोग के संदर्भ में न्यायालय की व्यवस्थाओं, विधि आयोग की रिपोर्ट और दंड न्याय व्यवस्था में सुधार के लिये गठित न्यायमूर्ति मलिमथ की अध्यक्षता वाली समिति की रिपार्ट के बावजूद स्थिति में अभी तक कोई बदलाव नहीं हुआ है।
शीर्ष अदालत के न्यायमूर्ति आदर्श कुमार गोयल और न्यायमूर्ति उदय यू. ललित की खंडपीठ ने जुलाई 2017 में ऐसे मामलों में कार्रवाई करने से पहले कुछ महत्वपूर्ण कदम उठाने के निर्देश दिये थे। इस पीठ ने धारा 498-ए के तहत दर्ज मामलों में पति और ससुराल वालों को तत्काल गिरफ्तार करने की बजाय ऐसी शिकायतों की जांच के लिये प्रत्येक जिले में परिवार कल्याण समितियां गठित करने सहित कई निर्देश दिये थे। परंतु, महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले की महिला वकीलों के संगठन ‘न्यायाधार’ को यह व्यवस्था अनुचित लगी और प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली पीठ भी पहली नजर में इस आपत्ति से सहमत थी। इस पीठ को महसूस हुआ कि इससे महिलाओं के अधिकार प्रभावित होते हैं।
इसके बाद ही प्रधान न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय खंडपीठ ने इस पर विचार करके अपनी व्यवस्था में कहा कि चूंकि संसद ने 1983 में धारा 498-ए दंड संहिता में शामिल की थी, इसलिए यह उसका कर्तव्य है कि इसके दुरुपयोग से पति और उसके रिश्तेदारों को होने वाली परेशानी से बचाने के लिये संरक्षणात्मक उपाय करे।
इस खंडपीठ ने हालांकि ऐसे मामलों की जांच के लिये समिति गठित करने से असहमति व्यक्त की परंतु उसने कहा कि न्यायालय इस प्रावधान का दुरुपयोग होने के तथ्य से आंख नहीं मूंद सकता। ऐसी स्थिति में कानून बनाने वाली विधायिका का ही यह दायित्व है कि वह गिरफ्तारी के संबंध में उचित सुरक्षात्मक प्रावधान करे।
इस फैसले से आठ साल पहले शीर्ष अदालत के न्यायमूर्ति दलवीर भंडारी और न्यायमूर्ति के.एस. राधाकृष्णन ने प्रीति गुप्ता बनाम झारखण्ड मामले में धारा 498-ए के बढ़ते दुरुपयोग पर चिंता व्यक्त करते हुए कहा था कि विधायिका को इस प्रावधान पर गंभीरता से पुनः विचार करना चाहिए। न्यायालय ने इस धारा में सुधार की हिमायत की ताकि वैवाहिक संस्था को टूटने से बचाया जा सके। न्यायालय की तमाम टिप्पणियों के बाद गृह मंत्रालय ने सितंबर 2009 में यह मसला विधि आयोग के पास भेजा था।
विधि आयोग के अलावा दंड न्याय व्यवस्था में सुधार के लिये गठित मलिमथ समिति ने धारा 498-ए के तहत दंडनीय अपराध को अदालत की अनुमति से समझौते के दायरे में लाने और जमानती अपराध बनाने का सुझाव दिया था। गृह मंत्रालय ने मामला दर्ज करने में संयम बरतने की सलाह राज्य सरकारों को दी थी ताकि इसका इस्तेमाल हथियार के रूप में नहीं किया जा सके।
गृह मंत्रालय ने इस धारा में संशोधन का मसौदा विधि मंत्रालय के पास भेजा था, जिसमें प्रस्ताव था कि धारा का दुरुपयोग होने की स्थिति में शिकायतकर्ता पर जुर्माने की राशि एक हजार रुपए से बढाकर 15000 रुपए कर दी जाये परंतु इसके बाद यह मामला आगे नहीं बढ़ सका।
चूंकि अब प्रधान न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय खंडपीठ ने भी जोर देकर कहा है कि यह प्रावधान विधायिका ने किया था, इसलिए उसका ही यह कर्तव्य है कि पति और उसके रिश्तेदारों को अनावश्यक रूप से परेशानी से बचाने के लिये वह उचित सुरक्षात्मक उपाय करे। इस बीच, भाजपा के दो सांसदों हरिनारायण राजभर और अंशुल वर्मा ने पुरुष आयोग के गठन की मांग करके सभी को चौंका दिया है। अंशुल वर्मा ने तो यह भी दावा किया कि धारा 498-ए पुरुषों को सताने का एक हथियार बन गया है और 1998 से 2015 के दौरान इस धारा के तहत 27 लाख से अधिक पुरुषों को गलत तरीके से गिरफ्तार किया गया है।
उम्मीद की जानी चाहिए कि सरकार पुरुष वर्ग के हितों की रक्षा के लिये संसद के शीतकालीन सत्र में इस दिशा में ठोस पहल करेगी।

Thursday, September 6, 2018

नोचिकित्सकों की मानें तो ऐसे लोगों से डरने की

उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, मध्य प्रदेश, और झारखंड समेत देश के 16 राज्यों के लगभग  , से अधिक मदरसा शिक्षकों को पिछले ढाई सालों से केंद्र सरकार की तरफ से वेतन नहीं मिला है जिसके कारण बहुत से शिक्षकों की आर्थिक स्थिति ख़राब होती जा रही है.
अमरोहा से इस विरोध प्रदर्शन में पहुंचे यूसुफ अली सैफी ने कहा, "हमारे घर की स्थिति बहुत दयनीय होती जा रही है. हम गुजर बसर को लेकर परेशान हैं. कई शिक्षक दुकानों पर और खेतों में मजदूरी करने के लिए विवश हैं."
वहीं प्रतापगढ़ से पहुंचे अंसार अली कहते हैं, "हम पोस्ट ग्रेजुएट हैं लेकिन हमें वेतन दिहाड़ी मजदूरों से भी कम मिलता है यहां तक कि राज्य सरकार से मिलने वाले पैसे भी समय से नहीं मिलते. केंद्र ने पैसे रोक रखे हैं तो भला तीन हज़ार रुपये महीने में हम अपना घर कैसे चलाएं. क्या इसी दिन के लिए पोस्ट ग्रेजुएट की पढ़ाई की थी."
भारत में मदरसों की संख्या 25,000 से अधिक बताई जाती है, जिनमें अकेले उत्तर प्रदेश में ही राज्य मदरसा बोर्ड से मान्यता प्राप्त 19,213 मदरसे हैं.
एजाज अहमद कहते हैं, "राज्य के मदरसों में शिक्षकों की संख्या लगभग 25 हज़ार है, जबकि पूरे देश में इनकी तादाद 50 हज़ार है. सरकारी पोर्टल पर भी इन मदरसों के डेटा ऑनलाइन किए गए हैं. इनके आधुनिकीकरण के लिए करीब 1,000 करोड़ रुपये की ज़रूरत है. यहां केवल मुसलमान शिक्षक ही नहीं हैं. इनमें करीब 20 फ़ीसदी शिक्षक हिंदू हैं."
सुप्रीम कोर्ट में धारा 377 को अपराध की श्रेणी से हटाने पर विचार चल रहा है. इस बीच ऐसी बहुत सी गलत बातें हैं जो समलैंगिक समुदाय के बारे में लोगों के मन में समाई हुई हैं. ऐसे ही कुछ मिथक और सवालों के जवाब देखिए इस वीडियो में.
बीबीसी ने कॉलेज में पढ़ने वाले छात्रों से जानना चाहा कि वे समलैंगिक समुदाय के बारे में कितना जानते हैं और उनकी कैसी छवि अपने मन में बसाए हुए हैं.
वीडियोः नवीन नेगी और बुशरा शेख़
(बीबीसी हिन्दी के एंड्रॉएड ऐप के लिए आप यहां क्लिक कर सकते हैं. आप हमें फ़ेसबुक,
देश की सर्वोच्च अदालत ने गुरुवार को आईपीसी की धारा-377 की क़ानूनी वैधता पर फ़ैसला सुना दिया है. अब आपसी सहमति से दो समलैंगिकों के बीच बनाए गए संबंध को आपराधिक कृत्य नहीं माना जाएगा.
चीफ़ जस्टिस दीपक मिश्रा ने आज फ़ैसला सुनाते हुए कहा कि समलैंगिकता अपराध नहीं है. समलैंगिको के भी वही मूल अधिकार हैं जो किसी सामान्य नागरिक के हैं. सबको सम्मान से जीने का अधिकार है.
चीफ़ जस्टिस दीपक मिश्रा, जस्टिस रोहिंटन नरीमन, एएम खानविलकर, डी वाई चंद्रचूड़ और जस्टिस इंदु मल्होत्रा की संवैधानिक पीठ इस मामले पर फ़ैसला सुनाया है.
सुप्रीम कोर्ट ने साल 2013 में दिल्ली हाई कोर्ट के फ़ैसले को पलटते हुए इसे अपराध की श्रेणी में डाल दिया था.
इसके बाद सुप्रीम कोर्ट को इसके विरोध में कई याचिकाएं मिलीं. आईआईटी के 20 छात्रों ने नाज़ फाउंडेशन के साथ मिलकर याचिका डाली थी. इसके अलावा अलग-अलग लोगों ने भी समलैंगिक संबंधों को लेकर अदालत का दरवाज़ा खटखटाया था, जिसमें 'द ललित होटल्स' के केशव सूरी भी शामिल हैं. अब तक सुप्रीम कोर्ट को धारा-377 के ख़िलाफ़ 30 से ज़्यादा याचिकाएँ मिली हैं.
याचिका दायर करने वालों में सबसे पुराना नाम नाज़ फाउंडेशन का है, जिसने 2001 में भी धारा-377 को आपराधिक श्रेणी से हटाए जाने की मांग की थी.
भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) में समलैंगिकता को अपराध माना गया है. आईपीसी की धारा 377 के मुताबिक, जो कोई भी किसी पुरुष, महिला या पशु के साथ अप्राकृतिक संबंध बनाता है तो इस अपराध के लिए उसे 10 वर्ष की सज़ा या आजीवन कारावास दिया जाएगा. इसमें जुर्माने का भी प्रावधान है. यह अपराध ग़ैर ज़मानती है.

भारत में समलैंगिक संबंधों को अपराध की श्रेणी में रखा गया है और इसे आपराधिक श्रेणी से हटाए जाने के लिए ही ये सुनवाई हो रही है.
हालांकि इस मामले में कई पेंच हैं. निजता के अधिकार पर एक सुनवाई करते हुए साल 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि "सेक्सुअल ओरिएंटेशन/ यौन व्यवहार सीधे तौर पर निजता के अधिकार से जुड़ा है. यौन व्यवहार के आधार पर भेदभाव करना व्यक्ति विशेष की गरिमा को ठेस पहुंचाना है."ल 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने इसे प्राकृतिक व्यवहार के विरूद्ध बताया और इसे अपराध ठहराया.
इस मामले पर  के लिए काम करने वाले एक्टिविस्ट और वकील आदित्य बंदोपाध्याय ने बीबीसी को बताया, "अगर आप अपने पर्सनल स्पेस में होमोसेक्शुएलिटी फॉलो करते हैं तो कोई फ़र्क नहीं पड़ता. लेकिन जब आप इसको अभिव्यक्त करते हैं तो यह आपराधिक हो जाता है."
वहीं इस समुदाय के लिए काम करने वाले नक्षत्र भागवे कहते हैं कि लोगों को लगता है कि उनकी इस मांग के पीछे सेक्स है, लेकिन ऐसा नहीं हैं. "हम सेक्स के लिए नहीं लड़ रहे हैं. हमारी ये लड़ाई हमारी पहचान के लिए है."